धेनु दुहत अतिहीं रति बाढ़ी।
एक धार दोहनि पहुँचावत, एक धार जहँ प्यारी ठाढ़ी।।
मोहन-कर तैं धार चलति, परि मोहनि-मुख अतिहीं छबि गाढ़ी।
मनु जलधर जलधार वृष्टि-लघु, पुनि-पुनि प्रेम चंद पर बाढ़ी।।
सखी संग की निरखतिं यह छबि, भईं व्याकुल मन्मथ की डाढ़ी।
सूरदास प्रभु के रस-बस सब, भवन-काज तैं भईं उचाढ़ी।।736।।