देवकी मन-मन चकित भई।
देखहु आइ पुत्र-मुख काहे न, ऐसी कहुँ देखी न दई।
सिर पर मुकुट पीत उपरैना, भृगु-पद उर, भुज चारि धरे।
पूरब कथा सुनाइ कही हरि, तुम माँग्यौ इहिं भेष करे।
छोरे निगड़, सोआए पहरू, द्वारे कौ कपाट उघरयौ।
तुरत मोहिं गोकुल पहुँचावहु, यह कहि कै सिसु बेष धरयौ।
तब बसुदेव उठे यह सुनतहिं, हरषवंत नँद-भवन गए।
बालक धरि, लै सुरदेवी कौं, आइ सूर मधुपुरी ठए॥8॥