देखौ माई सुंदरता कौ सागर -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग मलार



देखौ माई सुंदरता कौ सागर।
बुधि-बिबेक-बल पार न पावत, मगन होत मन-नागर।
तनु अति स्याम अगाध अंबु-निधि, कटि पट पीत तरंग।
चितवत चलत अधिक रुचि उपजति, भँवर परति सब अंग।।
नैन-मीन, मकरकृत कुंडल, भुज सरि सुभग भुजंग।
मुक्ता-माल मिलीं मानौ, द्वै सुरसरि एकै संग।।
कनक खचित मनिमय आभूषण, मुख, स्रम-कन सुख देत।
जनु जल-निधि मथि प्रगट कियौ ससि, श्री अरू सुधा समेत।
देखि सरूप सकल गोपी जन, रहीं बिचारि-बिचारि।
तदपि सूर तरि सकीं न सोभा, रहीं प्रेम पचि हारि।।628।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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