देखि री देखि आनँद-कंद -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग केदारी



देखि री देखि आनँद-कंद।
चित्त-चातक-प्रेम-धन, लोचन-चकोरनि-चंद।।
चलित कुंडल गंड-मंडल झलक ललित कपोल।
सुधा सर जनु मकर क्रीड़त, इंदु डह डह डोल।
सुभग कर आनन समीपै, मुरलिका इहिं भाइ।
मुन उभै अंभोज-भाजन, लेत सुधा भराइ।
स्याम-देह दुकूल-दुति मिलि, लसति तुलसी-माल।
तड़ित धन संजोग मानौ, स्रेनिका सुक-जाल।
अलक अबिरल, चारु हास-बिलास, भृकुटो भंग।
सूर हरि की निरखि सोभा, भई मनसा पंग।।627।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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