जौ जागौ तो कोऊ नाही, अंत लगी पछितान।
जानौ साँच मिले मनमोहन, भूली इहिं अभिमान।।
नींदहिं मैं मुरझाइ रही हौं, प्रथम पंचसंधान।
अब उर अंतर मेरी माई, स्वपन छुटे छल बान।।
‘सूर’ सकति जैसे लछिमन तन, विह्वल ह्वै मुरझान।
ल्याउ सजीवन मूरि स्याम कौ, तौ रहिहै ये प्रान।। 3263।।