जोग जुगुति जद्यपि हम लीनी -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सारंग


 
जोग जुगुति जद्यपि हम लीनी, लीला काकौ दैहौ।
उलटि जाहु मथुरा मधुकर तुम, बूझि बेगि ब्रज ऐहौ।।
रास समय कालिदी के तट, तब तुव वचन न माने।
यह को सुनै कुपंथ की बतियाँ, प्रभुहि पराए जाने।।
नगर बसत गुन ज्ञान बढ़त, पै मूलहु विसरयौ ज्ञान।
चारि बाहु पद भए मधुपुरी, खरे सुहाए कान।।
आपुन फेरि कियौ दिखियत है, तुम भूलौ हम भूलति।
‘सूर’ स्याम बल्लभ वेली बिनु, दरस सलिल उन्मूलति।।3705।।

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