जिन जिनही केसव उर गायौ।
तिन तुम पै गोविंद-गुसाई, सबनि अभै-पद पायौ।
सेवा यहै, नाम सर-अवसर जो काहुहि कहि आयौ।
कियौ बिलंब न छिनहुँ कृपानिधि, सोइ सोइ निकट बुलायौ।
मुख्य अजामिल मित्र हमारौ, सो मैं चलत बुझायौ।
कहाँ कहाँ लौं कहौं कृपन की, तिनहुँ न स्नवन सुनायौ।
व्याघ, गीध, गनिका, जिहि कागर, हौं तिहिं चिठि न चढा़यौ।
मरियत लाज पाँच पतितनि मैं, सूर सबै बिसरायौ।।193।।
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