जननी, हौं अनुचर रघुपति कौ -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग मारू
हनुमान-कृत सीता-समाधान


 
जननी, हौं अनुचर रघुपति कौ।
मति माता करि कोप सरापै, नहिं दानव ठग मति कौ।
आज्ञा होइ, देउँ कर-मुँदरी, कहौं सँदसौ पति कौ।
मति हिय बिलख करौ सिय, रघुवर हतिहैं कुल दैयत कौ।
कहौ तौ लंक उखारि डारि देउँ जहाँ पिता संपति कौ।
कहौ तौ मारि-सँहारि निसाचर; रावन करौं अगति कौ।
सागर-तीर भीर बनचर की, देखि कटक रघुपति कौ।
अबै मिलाऊँ तुम्हैं सूर प्रभु, राम-रोष डर अति कौ॥84॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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