जनकसुता, तू समुझि चित्त मैं -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

Prev.png
राग मारू
रावण-वचन,सीता-प्रति


 
जनकसुता, तू समुझि चित्त मैं, हरषि मोहि तन हेरि।
चौदह सहस किन्नरी जेती, सब दासी हैं तेरी।
कहै तौ जनक गेह दै पठवौं, अरघ लंक कौ राज।
तोहिं देखि चतुरानन मोहै, तू सुंदरि-सिरताज।
छाँडि़ राम तपसी के मोहै, उठि आभूषन साजु।
चौहद सहस तिया मैं तोकौं पटा वँधाऊँ आजु।
कठिन वचन दै दृष्टि तरौंधी, दियौ नयन जल ढारि।
पापी जाउ जीभ गरि तेरी, अजुगुत बात बिचारी।
सिंह कौ भच्छ सृगाल न पावै, हौं समरथ की नारी।
चौहद सहस सेन खरदूषन, हती राम इक बान।
लछिमन-राम-धनुष-सन्मुख परि, काके रहिहैं प्रान?
मेरौ हरन मरन है तेरौ त्यौं कुटुंब-संतान।
जरिहै लंक कनकपुर तेरौ, उदवत रघुकुल-भान।
तोकौं अवध कहत सब कोऊ तातैं सहियत बात।
बिना प्रयास मारिहौं तोकौं, आजु रैनि के प्रात।
यह राकस कौ जाति हमारी मोह न उपजै गात।
परितिय रमैं, धर्म कहा जानैं, डोलत मानुष खात।
मन मैं डरी, कानि जिनि तोरै, मोहिं अबला जिय जानि।
नख-सिख-बसन सँभारि, सकुच तनु, कुच-कपोल गहि पानि।
रे दसकंध, अंधमति, तेरी आयु तुलानी आनि।
सूर राम की करत अवज्ञा, डारैं सब भुज भानि॥79॥

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः