घरहिं जाति मन हरष बढ़ायौ।
दुख डारयौ, सुख अंग भार भरि, चली लूट सौ पायौ।।
भौंह सकोरति चलति मंद गति, नैंकु बदन मुसुकायौ।
तहँ इक सखी मिली राधा कौं, कहति भयौ मन भायौ।।
कुंज-भवन हरि-संग बिलसि रस, मन कौ सुफल करायौ।
सूर सुगंध चुरावनहारौ, कैसैं दुरत दुरायौ।।1695।।