गोबिंद प्रीति सवनि की मानत।
जिहिं जिहिं भाइ करत जन सेवा, अंतर की गति जानत।
सबरी कटुक बेर तजि, मीठे चाखि, गोद भरि ल्याई।
जूठनि की कछु संक न मानी, भच्छ किए सत-भाई।
संतत भक्त-मीत हितकारी स्याम बिदुर कैं आए।
प्रेम-विकल, अति आनँद उर धरि, कदली-छिकुला खाए।
कौरव-काज चले रिषि सापन, साक पत्र सु आघाए।
सूरदास करुना-निघान प्रभु, जुग जुग भक्त बढ़ाए।।13।।