काहू के कुल तन न बिचारत -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग बिलावल


            
काहू के कुल तन न बिचारत।
अबिगत की गति कहि न परति है, ब्‍याध-अजामिल तारत।
कौन जाति अरु पाँति बिदुर की, ताही कैं पग धारत।
भोजन करत माँगि घर उनकैं, राज-मान-मद टारत।
ऐसे जनम-करम के ओछे, ओछनि हूँ ब्‍यौहारत।
यहै सुभाव सूर के प्रभु कौ, भक्त-बछल-प्रन पारत।।12।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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