गुरु गृह हम जब बन कौ जात।
तोरत हमरे बदलै लकरी, सहि सब दुख नित गात।।
एक दिवस बरषा भई बन मैं, रहि गए ताहीं ठौर।
इनकी कृपा भयौ नहिं मोहि स्रम, गुरु आए भऐ भार।।
सो दिन मोहिं बिसरत न सुदामा, जो कीन्ही उपकार।
प्रति उपकार कहा करौ ‘सूरज’ भापत आप मुरार।। 4231।।