क्यौं तुम स्यामहिं दोष लगावति।
क्यौं मुरली की करति प्रसंसा, यह तो मोंहि न भावति।।
याकी जाति नहीं जो जानति, कहि-कहि मैं समुझावति।
कपटिनी, कुटिल, काठ की संगिनी, ताकौं भली बतावति।।
याकौ नाम भोर नहिं लीजै, कहि कहि ताहि सुनावति।
सूर स्याम इनहीं बहकाए, भई उदासिनि गावति।।1299।।