कै तुमसौ छूटै लरि ऊधौ, कै रहियै गहि मौन।
इक हम जरी, जरे पर जारत, बोलि विगूचै कौन।।
एकै अंग मिले दोउ कारे, काकौ मन पतिआइ।
तुमसी होइ सो तुमसौ बोलै, लैहै जोगहिं आइ।।
जा काहू कौ जोग चाहिए, सो लै भस्म लगावै।
जिहिं उर ध्यान नंदनंदन कौ, तिहिं क्यौ निरगुन भावै।।
कहौ सँदेस ‘सूर’ के प्रभु कौ, यह निरगुन अँधियारौ।
अपनौ बोय आप लुनौ तुम, आपै ही निरवारौ।।3904।।