केतिक दूरि गयौ रथ माई -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग धनाश्री


केतिक दूरि गयौ रथ माई।
नंदनंदन के चलत सखी हौ, हरि कौ मिलन न पाई।।
एक दिवस हौ द्वार नंद के, नाहिं रहति बिनु आई।
आजु विधाता मति मेरी हरी, भवन काज बिरमाई।।
जब हरि ऐसौ साज करत है, काहु न बात चलाई।
ब्रज ही बसत बिमुख भइ हरि सौ, सूल न उर तै जाई।।
सोवत ही सुपने की संपति, रही जियहिं सुखदाई।
'सूरदास' प्रभु बिनु ब्रज बसिवौ, एकौ पल न सुहाई।।2997।।

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