केतिक दूरि गयौ रथ माई।
नंदनंदन के चलत सखी हौ, हरि कौ मिलन न पाई।।
एक दिवस हौ द्वार नंद के, नाहिं रहति बिनु आई।
आजु विधाता मति मेरी हरी, भवन काज बिरमाई।।
जब हरि ऐसौ साज करत है, काहु न बात चलाई।
ब्रज ही बसत बिमुख भइ हरि सौ, सूल न उर तै जाई।।
सोवत ही सुपने की संपति, रही जियहिं सुखदाई।
'सूरदास' प्रभु बिनु ब्रज बसिवौ, एकौ पल न सुहाई।।2997।।