कुवँर दोउ बैरागी बैराग।
पलटति बसन करति निसि चोरी, बपु बिलसत भइ जाग।।
बेसरि वेह मूँदि मृगमद मथि, उर धुकधुकी जु कीनी।
चलत चरन चित गयौ गलित झरि, स्वैद सलिल भइ भीनी।।
छूटी भुजबँध फूटि परव कर, फटी कचुकी झीगी।
मनहु प्रेम की परनि परेवा, याही तै पढि लीनी।।
अवलोकत इहि भाँति रमापति जान अहि मनि छीनी।
'सूरदास' प्रभु कहि न जाइ कछु, हौ जानौ मति हीनी।। 149 ।।