कुबिजा स्याम सुहागिनि कीन्ही। रूप अपार जाति नहि चीन्ही।।
आपु भए पति वह अरधगी। गोपिनि नाँउ धरयौ नवरगी।।
वै बहुरवन, नगर की सोऊ। तैसोइ सग वन्यौ अब दोऊ।।
एक एक तै गुननि उजागर। वह नागरि, वै तौ अति नागर।।
वह जो कहति स्याम सोइ मानत। निसिदिन वाकै गुननि बखानत।।
जानि अनोखी मनहि चुरावै। ‘सूरज’ प्रभु अब नहि व्रज आवै।। 3144।।