काहे कौ पिय पियहि रटति हौ, पियकौ प्रेम तेरौ प्रान हरैंगी।
काहे कौ लेति नयन जल भरि भरि, नैन भरे कैसै सूल टरैंगी।।
काहे कौ स्वास उसास लेति हौ, बैरी विरह कौ दवा बलैंगी।
छार सुगंध सेज पुहपावलि, हार छुवैइ हिय हार जरैंगी।।
बदन दुराइ बैठि मंदिर मैं, बहुरि निसापति उदय करैंगी।
‘सूर’ सखी अपने इन नैननि, चंद चितै जनि चंद जरैंगी।। 3368।।