ऐसौ सुनियत है द्वै सावन।
वहै सूल फिरि सालत जिय, स्याम कह्यौ हो आवन।।
तब कत प्रीति करी अब त्यागी, अपनौ कीन्हौ पावन।
इहिं दुख सखी निकसि तहँ जइयै, जहँ सुनियै कोउ नावँ न।।
एकहिं बेर तजी मधुकर ज्यौ, लागे नेह बढावन।
‘सूर’ सुरति क्यौं होति हमारी, लागी नीकी भावन।। 3367।।