कहाँ लौ कहिऐ व्रज की बात।
सुनहु स्याम तुम बिनु उन लोगनि, जैसे दिवस बिहात।।
गोपी ग्वाल गाइ गोसुत सब, मलिन बदन कृस गात।
परम दीन जनु सिसिर हेम हत, अबुजगन बिनु पात।।
जो कोउ आवत देखि दूरि तै, उठि पूछत कुसलात।
चलन न देत प्रेम आतुर उर, कर चरननि लपटात।।
पिक चातक बन बसन न पावत, वायस बलि नहि खात।
‘सूर’ स्याम संदेसनि कै डर, पथिक न उहि मग जात।।4119।।