कहँ लौ कहौ सखि सुंदरताई।
मोर पच्छ माथे पर राजत फेरत कमल अग सुखदाई।।
पहिरे पीताबर है ठाढ़े बहु विधि (सुदर) ठाट बनाई।
मुरली अधर मधुर धुनि बाजति नए मेघ मानौ घहराई।।
सिर पर लाल पागरी बाँधे उर मुक्तनि की माल रुराई।
जुगल प्रवाह सुरसरी धारा निरखत कलिमल गए हिराई।।
बैजती लटकति चरननि लौ हस कीर रहे बैठि लजाई।
सोभा सिंधुपार नहिं जाकौ सिव बिरचि सोचत अधिकाई।।
बड़े भाग प्रगटे जसुदा कै घर बैठे ही नव निधि आई।
'सूरदास' प्रभु नद अनदित तिहूँ लोक छिति छवि न समाई।। 47 ।।