कर्म-धर्म कैं बस मैं नाहीं -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग टोड़ो


कर्म-धर्म कैं बस मैं नाहीं, जोग जज्ञ मन मैं न करौं।।
दीन-गुहारि सुनौं स्रवननि भरि, गर्ब-बचन सुनि हृदय जगैं।
भाव-अधीन रहौं सबही कैं, और न काहू नैंकु डरौं।।
ब्रह्मा कीट आदि लौं ब्‍यापक, सबकौं सुख दै दुखहिं हरौं।
सूर स्‍याम तब कही प्रगटही, जहाँ भाव तहँ तैं न टरौं।।1522।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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