कर्म-धर्म कैं बस मैं नाहीं, जोग जज्ञ मन मैं न करौं।।
दीन-गुहारि सुनौं स्रवननि भरि, गर्ब-बचन सुनि हृदय जगैं।
भाव-अधीन रहौं सबही कैं, और न काहू नैंकु डरौं।।
ब्रह्मा कीट आदि लौं ब्यापक, सबकौं सुख दै दुखहिं हरौं।
सूर स्याम तब कही प्रगटही, जहाँ भाव तहँ तैं न टरौं।।1522।।