करत कछु नाही आजु बनी -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

Prev.png
राग धनाश्री


करत कछु नाही आजु बनी।
हरि आए हौ रही ठगी सी, जैसे चित्र धनी।।
आसन हरषि हृदय नहिं दीन्हौ, कमल कुटी अपनी।
न्योछावर उर, अरघ न नैननि, जलधारा जु बनी।।
कंचुकि तै कुच कलस प्रगट ह्वै, टूटिन तरकि तनी।
अव उपजी अति लाज मनहिं मन, समुझत निज करनी।।
मुख देखत न्यारी सी रहि गई, बिनु बुधि मति सजनी।
तदपि ‘सूर’ मेरी जडता, मंगल माहिं गनी।। 4293।।

Next.png

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः