कंध दंत धरि डोलत, रंगभूमि बल हरि।
उज्ज्वल साँबल बपु, सोभित अग, फिरत फरि।।
द्वारै पैठत गयद मारि, धरनि डारयौ।
मुष्टिक, चानूर मल्ल मूसल संहारयौ।।
जिहिं जैसी जिय बिचार, तैसी रूप धारयौ।
देवकी वसुदेव कौ, सताप निवारयौ।।
मल्ल सुभट परे भगार, कृष्न कै रिसाने।
देखि पराकरम कस, तब जिय बिलखाने।।
दोषदलन, अभयकरन, कृषन सरनदाई।
जोइ चितहिं सोइ चितै, गोवरधन राई।।
कस सुनि अचेत भयौ, बजन लगे बाजा।
कहि असीम गगन उठे, सिद्ध सुर समाजा।।
सुभट रहे देखत ही, रोके दरवाजा।
'सूर' नदनँदन गए, जहाँ कंस राजा।।3077।।