(ऊधौ) खरी जरी हरि सूलनि की।
कुंज कलोल किए बन ही बन, सुध बिसरी उन फूलनि की।।
तब हौ आनि अंक भरि लिन्ही, देखि छाँहँ नव मूलनि की।
अब वह प्रीति कहाँ लौ वरनौ, वा जमुना जल कूलनि की।।
वह छवि छाके है अति लोचन, बाहै गहि गहि झूलनि की।
खरकति है वह ‘सूर’ हिये मैं, माल दई मोहिं फूलनि की।।3910।।