ऊधौ धनि तुम्हारौ ब्यौहार।
धनि वै ठाकुर धनि तुम सेवक, धनि हम बर्तनहार।।
काटहु अंब बबुर लगावहु, चंदन की करि बारि।
हमकौ जोग भोग कुबिजा कौ, ऐसी समुझ तुम्हारि।।
तुम हरि पढ़े चातुरी विद्या, निपट कपट चटसार।
पकरौ साह चोर कौ छाँड़ो, चुगलनि कौ इतवार।।
समुझि न परै तिहारी मधुकर, हम ब्रज नारि गँवार।
'सूरदास' ऐसी क्यौ निबहै, अंध धुध सरकार।।3909।।