आवहु, कान्ह, साँझ की बेरिया।
गाइनि माँझ भए हौ ठाढे, कहति जननि, यह बड़ी कुबेरिया।
लरिकाई कहँ नैकु न छाँड़त, सोइ रहौ सुथरी सेजरिया।
आए हरि यह बात सुनतहीं, धाइ लए जसुमति महतरिया।
लै पौढ़ी आँगन हीं सुत कौं, छिटकि रही आछी उजियरिया।
सूर स्याम कछु कहत कहत ही बस करि लीन्हे आइ निंदरिया।।246।।