आजु हरि ऐसौ रास रच्यौ।
स्रवन सुन्यौ न कहूँ अवलोक्यौ यह सुख अब लौं कहाँ संच्यौ।।
प्रथमहिं सँचे, समाज साज सुर, सब मोहे, कोऊ न बच्यौ।
एकहिं बार थकित थिर चर कियौ, को जानै को कबहिं नच्यौ!
गत गुन-मद-अभिमान अधिक रुचि लै लोचन मन तहँइ खच्यौ।
सिव-नारद-सारदा कहत यौं, हम इतने दिन बादि पच्यौ।।
निरखि नैन रस-रीति रजनि रुचि, काम-कटक फिर कलह मच्यौ।
सूर धनुष-धीरज न धरयौ तब, उलटि अनंग अनंग तच्यौ।।1139।।