अविगत-गति जानी न परै -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग सारंग




अविगत-गति जानी न परै।
मन-बच-कर्म अगाध, अगोचर, केहि बिधि बुधि सँचरै।
अति प्रचंड पौरुष बल पाएँ, केहरि भूख मरैं।
अनायास बिनु उद्यम कीन्‍हैं, अजगर उदर भरै।
रीतै भरै, भरै पुनि ढारै, चाहै फेरि भरै।
कबहुँक तृन बूड़ै पानी मैं, कबहुँक सिला तरै।
गागर तैं सागर करि डारै, चहुँ दिसि नीर भरै।
पाहन-बीच कमल बिकसावै, जल मैं अगिनि जरै।
राजा रंक, रंक तै राजा, लै सिर छत्र धरै।
सूर पतित तरि जाई छिनक मैं, जो प्रभु नैँकु ढरै।।105।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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