अलकनि की छबि अलि-कुल गावत।
खंजन मीन मृगज लज्जित भए, नैननि गतिहिं न पावत।।
मुख मुसुक्यानि आनि उर अंतर, अंतर बुधि उपजावत।
सकुचत अरु बिगसत वा छवि पर अनुदिन जनम गँवावत।।
पूजत नाहिं सुभग स्यामल तन, जद्यपि जलधर धावत।
बसन समान होत नहिं हाटक, अगिनि झाँप दै आवत।।
मुक्ता-दाम बिलोकि बिलखि करि, अवलि बलाक बनावत।
सूरदास प्रभु ललित त्रिभंगी, मनमथ-मनहिं लजावत।।665।।