अधम की जौं देखौं अधभाई।
सुनु त्रिभुवन-पति, नाथ हमारे, तौ कछु कह्यौ न जाई।
अजहूँ लौं मन मगन काम सौं, बिरति नाहिं उपजाई।
परम कुबुद्धि, अजान ज्ञान तैं, हिय जु बसति जड़ताई।
पाँचौ देखि प्रगट ठाढ़े ठग हडनि ठगौरी खाई।
सुमृति-वेद मारग हरिपुर कौ, तातैं लियौ भुलाई।
कंटक-कर्म कामना कानन कौ, मग दियौ दिखार्इ।
हौं कहा कहौ, सबै जानत हौ, मेरी कुमति कन्हाई।
सूर पतित कों नाहिं कहूँ गति राखि लेहु सरनाई।।187।।
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