सखियनि यहै बिचारि परयौ।
राधा कान्ह एक भए दोऊ, हमसौं गोप करयौ।।
बृंदाबन तैं अबहीं आई, अति जिय हरष बढ़ाए।
औरै भाव, अंग-छबि औरै, स्याम मिले मन भाए।।
तब वह सखो कहति मैं बूझी, मोतन फिरि हँसि हेरयौ।
जबहिं कही सखि मिले तोहिं हरि, तब रिस करि मुख फेरयौ।।
औरै बात चलावन लागी मैं वाकौं पहिचानी।
सूर स्याम कैं मिलत आजुहीं, ऐसी भई सयानी।।1720।।