बदत बिरंचि, बिसेस सुकृत ब्रज-बासिन के।
श्री हरि तिनकै बेष, सुकृत ब्रज-बासिन के।
ज्योति रूप जगनाथ जगत-गुरु, जगत-पिता, जगदीस।
जोग-जग्य–जप-तप-ब्रत-दुर्लभ, सो हरि गोकुल ईस।
इक-इक रोम बिराट किए तन, कोटि-कोटि ब्रह्मांड।
सो लीन्हौ अवछंग जसोदा, अपनैं भरि भुज-दंड।
जाकैं उदर लोक-त्रय, जल-थल, पंच तत्व चौखानि।
सो बालक ह्वै झूलत पलना, जसुमति भवनहिं आनि।
छिति मिति त्रिपद करी करुनामय, बलि छलि दियौ पतार।
देहरि उलँघि सकत नहीं, सो अब खेलत नंद दूवार।
अनुदित सुर-तरु, पंच सुधा रस, चिंतामनि सुर धेनु।
सो तजि, जसमति कौ पय पीवत, भक्तति सुर देनु।
रबि-ससि-कोटि कला, अवलोकत त्रिबिध ताप छय जाइ।
सो अंजन कर लै सुत-चच्छुहिं आंजति जसुमति माइ।
दाता भुक्ता, हरता करता, बिस्वंभर जग जानि।
ताहि लाइ माखन की चोरी, बाँध्यौ जसुमति रानि।
बदन बेद उपनिषद, छहों रस अर्पै भुक्ता नाहिं।
गोपी ग्वालनि के मंडल मैं, हँसि-हँसि जूठनि खाहिं।
कमला-नायक, त्रिभुवन-दायक दुख-सुख जिनकैं हाथ।
कौध कमरिया, हाथ लकुटिया, बिहरत बछरनि साथ।
बकी, बकासुर, सकट, तृनाव्रत, अघ, प्रलंब, वृषभास।
कंस-केसि कौं वह गति दीनी, राखे चरन निवास।
भक्त-बछल प्रभु पतित-उधारन, रहे सकल भरि पूर।
मारग रोकि रह्यौ द्वारैं परि, पति-सिरोमनि सूर।।487।।