हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 88 श्लोक 22-43

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्‍टाशीतितम अध्याय: श्लोक 22-43 का हिन्दी अनुवाद

अपने मन को वश में रखने वाले भगवान श्रीकृष्‍ण समुद्र के निर्मल जल में पूर्वोक्‍त विश्‍वरूप विधि से उन सबके साथ क्रीड़ा करते थे। भगवान वासुदेव के शासन से उस समय महासागर समस्‍त सुगन्‍धों से युक्‍त, स्‍वच्‍छ, लवण रहित और शुद्ध स्‍वादिष्‍ट जल धारण करता था। समुद्र का वह जल कहीं घुट्ठी भर था तो कहीं घुटनों तक, कहीं जांघों तक था तो कहीं स्‍तनों तक। उन नारियों को इतना ही जल अभीष्‍ट था। श्रीकृष्‍ण की वे रानियां उन पर सब ओर से जल उलीचने लगीं, जैसे नदियों की अनेक धाराएं महासागर को सींचती हैं। भगवान गोविन्‍द भी उन पर जल छिड़कने लगे, मानो मेघ खिली हुई लताओं पर जल बरसा रहा हो। कितनी ही मृगनयनी नारियां श्रीहरि के कण्‍ठ में अपनी बांहें डालकर कहने लगी- 'वीर! मुझे हृदय से लगा लो, अपनी भुजाओं में कस लो; अन्‍यथा मैं जल में गिरी जाती हूँ।' कितनी ही सर्वांग सुन्‍दरी स्त्रियां क्रोंच, मोर तथा नागों के आकार में बनी हुई काठ की नौकाओं द्वारा जल पर तैरने लगीं। दूसरी-दूसरी स्त्रियां मगर, मत्‍स्‍य तथा अन्‍यान्‍य विविध प्राणियों की आकृति धारण करने वाली नौकाओं द्वारा तैरने लगीं। कितनी ही रानियां समुद्र के रमणीय जल में श्रीकृष्‍ण को हर्ष प्रदान करती हुई घटों के समान अपने स्‍तन कुम्‍भों द्वारा तैर रही थीं।

अमरशिरोमणि श्रीकृष्‍ण उस जल में आनन्‍दपूर्वक महारानी रुक्मिणी के साथ रमण करते थे। वे जिस-जिस कार्य या उपाय से आनन्‍द मानते, उनकी वे सुन्‍दरी स्त्रियां प्रशंसापूर्वक वही-वही कार्य या उपाय करती थीं। महीन वस्‍त्रों से ढकी हुई दूसरी तन्‍वंगी एवं कमलनयनी स्त्रियां भाँति-भाँति की लीलाएं करती हुई जल में भगवान श्रीकृष्‍ण के साथ क्रीड़ा करती थीं। जिस-जिस रानी के मन में जो-जो भाव था, सब के भावों को जानने और मन को वश में रखने वाले श्रीकृष्‍ण उसी-उसी भाव से उस स्‍त्री के अन्‍तर में प्रवेश करके उसे अपने वश में कर लेते थे। इन्द्रियों के प्रेरक और सबके स्‍वामी होकर भी सनातन भगवान हृषीकेश देश-काल के अनुसार अपनी प्रेयसी पत्‍नियों के वश में हो गये थे। वे समस्‍त वनिताएं अपने कुल के अनुरूप बर्ताव करने वाले जनार्दन को ऐसा समझती थीं कि ये कुल और शील में समान होने के कारण हमारे ही योग्‍य हैं। मुस्‍कराकर बात करने वाले तथा औदार्य-गुण से सम्‍पन्‍न उन प्राणवल्‍लभ श्रीकृष्‍ण को उस समय उनकी वे पत्नियां हृदय से चाहने लगीं तथा भक्ति एवं अनुराग के कारण उनका बहुत सम्‍मान करने लगीं। यादवकुमारों की गोष्ठियां अलग थीं। वे वीर यादवकुमार उत्‍तम गुणों की खान थे और प्रकाश रूप से स्‍त्री समुदायों के साथ समुद्र के जल की शोभा बढ़ा रहे थे।

जनेश्‍वर! वे स्त्रियां गीत और नृत्‍य की क्रिया को जानने वाली थीं तथा उन कुमारों के तेज से स्‍वयं ही उनकी ओर आकृष्‍ट हुई थीं तो भी वे कुमार उदारता के कारण उनके वश में स्थित थे। उन उत्‍तम नारियों के मनोहर गीत और वाद्य सुनते तथा उनके सुन्‍दर अभिनय देखते हुए वे यदुपुंगववीर उन पर लट्टू हो रहे थे। तदनन्‍तर श्रीकृष्‍ण ने विश्‍वरूप होने के कारण स्‍वयं ही प्रेरणा देकर पंचचूड़ा नाम वाली अप्‍सरा को तथा कुबेर भवन और इन्‍द्र भवन की भी सुन्‍दरी अप्‍सराओं को वहाँ बुला मँगाया। अप्रमेय स्‍वरूप जगदीश्‍वर श्रीकृष्‍ण ने हाथ जोड़कर चरणों में पड़ी हुई उन अप्‍सराओं को उठाया और सान्‍त्‍वना देकर कहा- 'सुन्‍दरियों! तुम नि:शंक होकर भीमवंशी यादवकुमारों की क्रीड़ा युवतियों में प्रविष्‍ट हो जाओ और मेरा प्रिय करने के लिये इन यादवों को सुख पहुँचाओ। नाच, गान, एकान्‍त–परिचर्या, अभिनय-योग तथा नाना प्रकार के बाजे बजाने की कला में तुम लोगों के पास जितने गुण हों, उन सबको दिखाओ। ऐसा करने पर मैं तुम्हें मनोवांछित कल्‍याण प्रदान करूँगा; क्‍योंकि ये सब-के-सब यादव मेरे शरीर के ही समान हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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