हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकाशीतितम अध्याय: श्लोक 23-44 का हिन्दी अनुवादसती नारी सावित्री व्रत और अदिति व्रत का अनुष्ठान करके पतिकुल, पितृकुल तथा अपने-आपका भी उद्धार कर देती है। इन्द्राणी ने भी उसी उमा के बताये हुए व्रत का विधिपूर्वक पालन किया। उनमें अधिक या विशेष बात इतनी ही थी कि उन्होंने लाल रंग का वस्त्र और योग्य पदार्थों से युक्त उत्तम भोजन दिया। चौथे दिन फिर पुण्यक व्रत के लिये दान की विधि है। एक दिन-रात का उपवास करके सौ घड़ों का दान करना चाहिये। यश का विस्तार करने वाली हरिप्रिये रुक्मिणी! गंगा जी ने भी उसी उमा के बताये हुए व्रत का अनुष्ठान और दान किया। उनमें अधिक बात इतनी ही थी कि वे प्रतिदिन प्रात:काल माघ शुक्ल पक्ष में अपने ही जल में अथवा दूसरे जल में भी स्नान किया करती थीं। यह गंगाव्रत समस्त मनोवांछित कामनाओं को देने वाला माना गया है। हरवल्लभे! गंगा व्रत का पालन करने वाली धर्मज्ञ नारी पितृकुल, मातामहकुल और पतिकुल की सात-सात पीढ़ियों का उद्धार कर देती है। शुभे! गंगाव्रत में एक सहस्र घड़ों का दान करना चाहिये। वह समस्त कामनाओं का पूरक व्रत दु:ख तारने और मनोरथों की पूर्ति करने वाला है। हरिवल्लभे! यमराज की पत्नी ने यामरथ नामक शुभ व्रत का अनुष्ठान किया था। वह व्रत हेमन्त-ऋतु में खुले आकाश के नीचे करना चाहिये। शुभे! पवित्र आचरण वाली स्त्री स्नान के पश्चात पति को नमस्कार करके खुले मैदान में खड़ी हो ये निम्नांकित वाक्य कहे- मैं अपनी पीठ पर हिम (बर्फ या पाला) का आघात सहती हुई यामरथ व्रत का आचरण कर रही हूँ। मेरी यह कामना है कि मैं पतिव्रता, चिरंजीवी पुत्रों की माता और नारियों में अग्रगण्या होऊँ। सौतों पर मेरा प्रभुत्व स्थापित हो, मैं कभी यम का दर्शन न करूँ और अपने पति एवं पुत्रों के साथ चिरकाल तक सुखपूर्वक जीवित रहूँ। अन्त में पतिलोक को प्राप्त होऊँ, अपने कुल-परिवार का आनन्द बढ़ाने वाली होऊँ। मेरे वस्त्र स्वच्छ रहें, मेरा हाथ शुद्ध हो, मैं स्वजनों की प्यारी एवं सद्गुणवती होऊँ। इस प्रकार व्रत को पूर्ण करके ब्राह्मण से स्वस्तिवाचन कराये तथा उसे मधु और काला तिल से मिश्रित खीर खिलाये। देवोपम कान्ति वाली देवि! हरिप्रिये! इस प्रकार रुद्रपत्नी महादेवी उमा द्वारा पूर्वकाल में बताये गये व्रतों का अनुष्ठान पहले की देवियों ने किया है। मैं कहता हूँ, देवियों! प्राचीनकाल में देवी उमा ने जिन कल्याणमय गुणों से युक्त, पावन, गुणकारक एवं शुभ पुरातन व्रतों का साक्षात्कार किया था, उन सबको तुम सब लोग मेरे तपोबल से सम्पन्न होकर देखोगी। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! रुक्मिणी ने उमा के वरदान के अनुसार दिव्य दृष्टि से व्रतों का विस्तार देखकर स्वयं भी एक ‘व्रत’ का अनुष्ठान किया। उन्होंने सब कुछ उमा के व्रत के ही समान किया, किंतु वृषभदान, रत्नमाला दान और सम्पूर्ण कामनाओं का पूरक अन्नदान- उनसे अधिक किया। जाम्बवती ने भी वैसा ही किया, जैसा पहले उमा ने किया था; किंतु उन्होंने मनोहर रत्नमय वृक्ष का दान उनकी अपेक्षा अधिक किया। सत्या ने भी पूर्वकाल में उमा द्वारा किये गये व्रत के समान ही दान किया; परंतु उस उमाव्रत में उन्होंने पीत वस्त्र का दान अधिक किया। कुल की वृद्धि करने वाले नरेश! पुरातन काल में रोहिणी, फाल्गुनी और मघा ने भी बहुत-से व्रत-दान किये थे। कुरुनन्दन! शतभिषा ने भी पुण्य को लक्षित कराने वाले व्रतक का दान किया था, जिससे उसने नक्षत्रों में मुख्यता प्राप्त कर ली। इस प्रकार श्री महाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णुपर्व में पारिजत हरण के प्रसंग में उमा-व्रत कथन-समाप्तिविषयक इक्यासीवाँ[1] अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कुछ लोग यहाँ हरिवंश ग्रन्थ के पूर्वार्ध भाग की समाप्ति मानते हैं और आगे के ग्रन्थ को उत्तरार्ध के अन्तर्गत बताते हैं।
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