हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोनाशीतितम अध्याय: श्लोक 18-42 का हिन्दी अनुवादव्रत के आरम्भ से लेकर प्रतिदिन इन पुराणोक्त मन्त्रों द्वारा समस्त द्रव्यों को अभिमन्त्रित करना चाहिये। यह पुराण में कहा गया है। शुभे! स्नान करके अपने पति को स्वयं ही सूत कातकर बनाये हुये दो वस्त्र भेंट करे। यदि किसी विघ्नविशेष के कारण अपने ही काते हुए सूत का वस्त्र न हो तो दूसरा ही वस्त्र दे दे। वह वस्त्र शुद्ध, नवीन, उत्तम और श्वेतवर्ण का होना चाहिये। उस वस्त्र के साथ अपना काता हुआ सूत भी मिला दे। सुमध्यमे! तदनन्तर ज्ञान-विज्ञान कोविद, पवित्र, जितेन्द्रिय ब्राह्मण को अपने पति के साथ बिठाकर यथाशक्ति भोजन कराये। महान तप करने वाली देवि! अरुन्धती! ब्राह्मण को भी यथासम्भव जोड़ा वस्त्र, शय्या, आसन, गृह, धान्य, दास-दासी, आभूषण, सब प्रकार के धान्यों और विशेषत: तिलों के मिश्रित रत्नमय पर्वत, जो नाना रंग के वस्त्रों से आच्छादित हो, यथाशक्ति दान करना चाहिये। सम्भव हो तो हाथी-घोड़ों का समूह दिया जाय अन्यथा एक गौ का ही दान कर दिया जाय। यथाशक्ति दान देना आवश्यक है। नमक, माखन, गुड़, मधु और सुवर्ण की बनी हुई पृथक-पृथक उमा-महेश्वर की सुन्दर प्रतिमा का भी दान करना चाहिये। नन्दिनी! उसी तरह सब प्रकार के सुगन्धित पदार्थों, रसों, फूलों, चाँदी, सम्पूर्ण फल, वस्त्र, चित्र और काष्ठ की प्रतिमा का भी यथासम्भव दान करना चाहिये। प्रस्तर, दूध, दही, घी और दूर्वा की प्रतिमा को तथा और तरह की प्रतिमा को भी, जिसे तुम देना चाहो, दे सकती हो। पतिव्रते! अगर घर में वैभव हो तो स्वामी की आज्ञा के अनुसार सदा देश-काल के अनुरूप थोड़ा-बहुत दान अवश्य देना चाहिये। शोभने! तिल से भरा हुआ पात्र भी देना चाहिये; परंतु स्वामी की आज्ञा के बिना कोई वस्तु नहीं देनी चाहिये। उनकी आज्ञा मिल जाने पर कपिला गौ तथा कास्य पात्र का दान अवश्य करना चाहिये। शुभगे! अनिन्दिते! काला मृगचर्म, तिल, वस्त्र, दर्पण, कुशासन और मृगचर्म का भी दान करना चाहिये। वरवर्णिनि! इन सब वस्तुओं का दान करके नारी सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेती है और नारियों में अग्रगण्य, पुत्रवती, सौभाग्यवती, रूपवती, शुद्ध हाथ वाली, धनाढ्य तथा निर्मल नेत्र वाली होती है। वह इच्छा मात्र से ऐसी कन्याएं प्राप्त कर लेती है, जो रूप-गुण से सम्पन्न, सुभगा, आश्चर्ययुक्त गुण वाली, अग्रगण्य, पुत्रवती, धनाढ्य तथा सदा सुशील होती हैं। अरून्धति! मैंने ही पहले इस व्रत का आचरण किया है, इसलिये इस पृथ्वी पर यह उमाव्रत के नाम से विख्यात होगा। स्त्रियों के लिये यही सबसे उत्तम व्रत है, अत: इसका आचरण अवश्य करें। अनिन्दिते! इस व्रत के लिये विहित यह दान देकर नारी सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेती है। सौम्ये! इसी व्रत के पुण्य से मैंने देवाधिदेव भगवान वृषध्वज को खरीद-सा लिया है। उन सर्वस्रष्टा महादेव जी ने मेरा प्रिय करने के लिये पूर्वकाल में मुझे पट्टमहिषी के पद पर अभिषिक्त किया था। व्रत के अन्त में सदा भोज्य-पदार्थों का दान करना चाहिये। स्त्रियों की अभीष्ट वस्तुओं का भी, जो देश-काल के अनुरूप हो, दान करना उचित है। वरवर्णिनि! व्रत के के जो उपकरण द्रव्य हैं उनका बराबर विभाग करके प्रत्येक ब्राह्मण को उसे देना चाहिये तथा ब्राह्मणों की इच्छा के अनुसार उन्हें दक्षिणा सहित अन्न का दान करना चाहिये। उस व्रत में खीर का दान करना चाहिये। दूसरा कोई अन्न अभीष्ट नहीं है। इसमें प्राणियों की हिंसा कदापि नहीं करनी चाहिये। यह पुराण में निश्चित रूप से कहा गया श्रुति का सिद्धान्त है। चन्द्रकुमारि! शुभे! अब मैं दूसरे व्रत का वर्णन करूँगी, जिसका महादेव जी की कृपा से मैंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है। शुभे! सत्पुरुषों का कथन है कि सारी स्त्रियां पुत्र रूप फल वाली होती हैं अर्थात पुत्र को जन्म देने से ही उनका नारीत्व सफल होता है; अत: पुत्र की इच्छा रखने वाली स्त्री पुत्रार्थिनी नारियों द्वारा देने योग्य करकों (कमण्डलुओं) का दान करे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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