हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 71 श्लोक 27-39

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकसप्ततितम अध्याय: श्लोक 27-39 का हिन्दी अनुवाद

दूसरों को मान देने वाले देवेन्द्र! जैसे मांस पिण्ड स्नेह (चर्वी या चिकनाई) से व्याप्त होता है, उसी प्रकार यह सारा जगत प्रभावशाली भगवान विष्णु से व्याप्त है। वे भगवान ब्राह्मणों के हितैषी हैं, सबके आत्मा हैं और जगत में जैसा शरीर धारण करते हैं, उसके अनुसार ही विभिन्न भागों (सुख-दुखादि धर्मों) द्वारा विकार को प्राप्त होते-से प्रतीत होते हैं। वास्तव में तो सबकी उत्पत्ति करने वाले वे भगवान वैकुण्ठ गुणतीत हैं। अत: प्रजा की सृष्टि करने वाले सर्वव्यापी भगवान पद्मनाथ स्वरूप श्रीकृष्ण समस्त देवताओं के लिये भी पूज्य ही हैं। वे ही पृथ्वी को अपने मस्तक पर धारण करने के लिये अनन्त (शेषनाग) के रूप में प्रकट हुए हैं। वे महान यश धारण करते हैं। वेदवादी साधु पुरुष उन्हीं का ‘यज्ञ’ नाम से भी प्रतिपादन करते हैं। वे सर्वव्यापी भगवान सत्ययुग में श्वेत, त्रेता में रक्त, द्वापर में पीत तथा कलयुग में कृष्णवर्ण का स्वरूप धारण करते हैं।[1] उन श्रीहरि ने दिव्य रूप धारण करके हिरण्याक्ष नामक दैत्य का वध किया था। उन्होंने जगत के हित की कामना से वाराह रूप धारण करके जल में डूबती हुई पृथ्वी का उद्धार एवं जल के ऊपर इसका संस्थापन किया था। उन्हीं श्रीहरि ने नरसिंह रूप धारण करके हिरण्यकशिपु का संहार किया था और उन्हीं वामन रूपधारी श्रीमान भगवान विष्णु ने इस पृथ्वी को जीता और बलि को नागपांश में बांध लिया। यद्यपि देवताओं और दानवों के सम्मिलित प्रयत्न से प्रकट हुई राजलक्ष्मी दोनों के लिये साधारण थी तो भी पूर्वकाल में अमित पराक्रमी, उदार हृदय, अनन्त भगवान विष्णु ने तुम्हारे लिये उस पर आक्रमण किया अर्थात विराट-रूप से तीनों लोकों को आक्रान्तर करके त्रिलोक लक्ष्मी तुम्हें समर्पित कर दी।

जिसकी तपस्या शेष है, वह भी यदि अलोक-मायामय अर्थात छल-कपट एवं अन्यायपूर्ण बर्ताव करता है तो भगवान श्रीकृष्ण उसे मार डालते हैं; क्‍योंकि दुराचारियों का यह विनाश इन महात्मा श्रीकृष्ण का व्रत है। सदा धर्म की रक्षा में तत्पर रहने वाले सतपुरुषों के आश्रयभूत भगवान गोविन्द ने तुम्हारा प्रिय करने के लिये मुख्य-मुख्य दानवों का तथा जो लोग देवताओं के शत्रु हुए हैं, उनका भी वध कर डाला है। इन मनस्वी प्रभू ने ही श्रीरामचन्द्र का रूप धारण करके रावण को मारा था तथा दूसरे-दूसरे अवतार धारण करके इन श्रीहरि ने इच्छानुसार शौर्य आदि गुणों से युक्त असुरों का उसी तरह संहार कर डाला था, जैसे सिंह हाथी को नष्ट कर देता है। समस्त भूतों में जो उत्तम है, उनसे भी उत्तम वे जगदीश्वर उपेन्द्र इस समय भी जगत के हित के लिये मनुष्य के रूप में निवास करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रुति में कथा है,

    कलि: शयानो भवति संजिहानस्तु व्दापर:।
    उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कुतं सम्पघते चरन् ॥

    इस श्रुतिक के साथ उपयुक्त श्लोक की संगति लगाते हुए आचार्य नीलकण्ठ कहते हैं कि जो अविद्यारूपी निद्रा में सो रहा है अर्थात जो अत्यन्त मूढ़ पुरुष है, वही कलि है। उस पर अनुग्रह करने के लिये इस जगत् में भगवान श्रीहरि कृष्ण होते हैं (अर्थात श्रीकृष्ण का अवतार ग्रहण करते हैं)। जो कुछ-कुछ कल्याण की बातों को देखता और समझता है, जो उस अज्ञान निद्रा से आधा जग गया है, उस पुरुष को द्वापर कहते हैं। उसके लिये भगवान पीतवर्ण होते हैं अर्थात सुवर्ण के समान मनोहर कान्ति धारण करते हैं। वह मनुष्य उनके उस दिव्यरूप पर आकृष्ट होकर कुछ भक्ति की ओर उन्मुख होता है। जो कल्याण की प्राप्ति के लिये सदा सजग रहकर प्रयत्न करता है, वह साधक त्रेता कहलाता है। उस पर अनुग्रह करने के लिये भगवान रक्त माता की भाँति अनुरक्त (वात्सलय भाव से युक्त) होते हैं। जो युधिष्ठिर आदि की भाँति भगवान का अत्यन्त भक्त है, सदा भक्ति के पथ पर ही चलता है, वह कृतकृत्य होने के कारण कृतयुग अथवा सत्ययुग कहा गया है; उसके प्रति भगवान शुक्लवर्ण होते हैं अथवा उसके समक्ष वे सदा अपने शुद्ध रूप को ही प्रकाशित करते हैं।

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