हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 70 श्लोक 27-38

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्ततितम अध्याय: श्लोक 27-38 का हिन्दी अनुवाद


मेरी माता तथा मेरे पिता प्रजापति कश्यप जी ने मुझसे कहा था कि भाई के समान दूसरा कोई बन्धु नहीं है; क्योंकि वह स्वाभाविक बन्धु है और दूसरे लोग भोजन आदि देकर बनाये हुए हैं। मेरे पिता कश्यप ने सहोदर भाई में विशेष बन्धुत्व बताया है। यद्यपि दानव भी हमारे भाई ही हैं; तथापि वे घमंडी और पापपूर्ण विचार रखने वाले हो गये हैं; इसलिये मैं उनका विरोध करता हूँ। विप्रवर! जो बात अपनी प्रशंसा से युक्त हो, उसे स्वयं ही नहीं कहना चाहिये, इसमे संशय नहीं है तथापि इस समय यहाँ मेरे द्वारा जो बात कही जाती है, उसके कहने का अवसर आ गया है।

मुनिश्रेष्ठ! महामते! पूर्वकाल में (दक्षयज्ञ-विध्वंस के समय) जब भगवान शंकर ने धनुर्धर पार्षदों ने वरदान के प्रभाव से देवताओं की धनुषों की प्रत्यञ्चा काट डाली और यज्ञरुपी विष्णु का सिर काट लिया गया था, उस समय मैंने ही उनके धड़ को धारण किया था तथा रुद्र के तेज से कटे हुए उनके सिर को यत्नपूर्वक धड़ से जोड़ा था। नारद जी! जब उनका मस्तक जुड़ गया, तब वे अच्युत स्वरूप केशव पुन: धनुष चढ़ाकर बड़े घमंड के साथ यह कहते हुए खड़े हो गये कि मैं इन देवताओं में सबसे बढ़कर हूँ। मुने! ऋषिश्रेष्ठ! मैंने उस समय यह सोचकर कि यदि मैं नहीं बचाता हूँ तो मेरे पिता-माता मुझे क्‍या कहेंगें, स्नेह के साथ विष्णु के शरीर को थाम लिया था।

नारद मुने! (वर्षा-ऋतु में जो सत्कर्म या पूजन किया जाता है, उस पर (मुझ) इन्द्र का ही आधिपत्य है; क्योंकि उस समय श्रीविष्णुशयन करते हैं) उस ऐन्द्रभाग को ही वैष्णव भाग बनाकर मैंने इन्हें अर्पित किया है।[1] इस प्रकार मैं अपने छोटे भार्इ कृष्ण को सदा प्रेमपूर्ण दृष्टि से ही देखता हूँ। तपोधन! संग्राम के अवसरों पर (यदि कृष्ण मेरे विरोध में खड़े हों तो) पहले उन्हीं को मुझ पर प्रहार करना चाहिये। अत युद्ध में मैं अवश्य ही पहले ही प्रहार करता हूं; क्योंकि मैं राजा हूँ। परहित धर्मज्ञ नारद जी! सभी अवतारों के समय मुझमें भक्ति रखने वाले केशव की मैं अपने शरीर के समान यत्नपूर्वक रक्षा करता आया हूँ। मुने! विष्णु ने मेरे इस भुवन (स्वर्गलोक) की मर्यादा भंग करके सब लोकों से ऊपर-ऊपर अपने भुवन (वैकुण्ठधाम) को प्रतिष्ठित किया और उसे अन्य लोकों से बढ़कर महत्त्व दिया। मुने! वह अपमान मैंने पीछे कर दिया (भुला दिया)। बड़े भाई का जो गौरव है, उस पर ध्यान देकर मैंने सदा यही सोचा है कि यह बालक हैं। अत: मेरे द्वारा लाड़-प्यार पाने के योग्य है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हरिवंश पर्व के पचपनवें अध्याय के श्लोक 26 से भी इस बात का समर्थन होता है।

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