हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 66 श्लोक 31-43

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: षट्षष्टितम अध्याय: श्लोक 31-43 का हिन्दी अनुवाद

सुन्दर अंगों वाली देवि! बताओ, आज तुम्हारा शरीर आभूषणों से भूषित क्यों नहीं है? धूसर कान्ति वाली सत्ये! जो चित्रक-पत्रक रचना का स्थान है, वह तुम्हारा मुख-मण्डल आज आंसुओं से लिप्त क्यों हो रहा है? प्रियदर्शने! विशाल नयनप्रान्त वाली हृदयवल्लभे! आज तुम्हारा ललाट श्वेत पट्टवस्त्रों और सरस सुगन्धित एवं कमनीय चन्दन द्वारा कैसे सेवित हो रहा है? प्रिये! किस कारण से तुम अपने मुख की प्रभा का उपमर्दन (शोभा का निवारण) कर रही हो अथवा यह सब करके क्यों मेरे मन को अत्यन्त ग्लानि पहुँचा रही हो? यह फैला हुआ चन्दन रस तुम्हारे कपोलों का प्रेमी बनकर पत्र-रचना का शत्रु बन बैठा है (अर्थात जहाँ पत्र रचना होनी चाहिये, वहाँ यह चन्दन का बेढंगा रस फैल रहा है), अत: अधिक शोभा नहीं पा रहा है। रत्नमय आभूषणों से सूनी हुई तुम्हारी वह ग्रीवा, जहाँ शरद्‌ ऋतु की शोभा प्रकट नहीं हुई है, उस ग्रह-नक्षत्रों के दर्शन से रहित वर्षाकाल के आकाश की भाँति शोभा नहीं पा रही है।

तुम्हारा मुस्कुराता हुआ मुख पूर्ण चन्द्रमा का प्रतिद्वन्द्वी बना रहता है। यह बहुत कम बोलता और कमल की-सी सुगन्ध बिखरेता रहता है। ऐसे मनोहर मुख के द्वारा आज तुम मुझ से बात क्यों नहीं करती हो? पूरी नहीं तो आधी आंख से भी मेरी ओर क्यों नहीं देखती हो? लम्बी सांस खींचकर अञ्जन से मलिन हुआ अश्रुजल बहाती ही जा रही हो। नीलकमल के समान श्याम कान्ति वाली मनस्विनि! यह रोना-धोना व्यर्थ है। इसे बंद करो। यह अञ्जन मिश्रित अश्रुजल तुम्हारे मुख की शोभा का वैरी है। इसे अब न बहाओ। देवि! जब सारे संसार में यह प्रसिद्ध है कि मैं तुम्हारा किंकर हूँ, तब वरवर्णिनी! तुम मुझे पहले की ही भाँति अभीष्ट सेवा के लिये आज्ञा क्यों नहीं देती हो? देवि! भामिनी! सुन्दरि! मैंने तुम्हारा कौन-सा अप्रिय कार्य (अपराध) किया है, जिससे तुम अपने-आपको अत्यन्त कष्ट दे रही हो।

सर्वांग सुन्दरि! मैं तुमसे यह सर्वथा सत्य कहता हूँ कि मैं मन, वाणी और क्रिया द्वारा भी कभी तुम्हारी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता हूँ। शोभने! यो तो मेरी सभी स्त्रियां मेरे द्वारा बहुत सम्मान और आदर पाने की अधिकारिणी हैं, तथापि मेरा विशेष आदर और स्नेह तुम्हारे सिवा अन्य सब स्त्रियों में नहीं हैं। देव कन्याओं के समान सुन्दरी सत्यभामे! मेरा जो तुम्हारे प्रति कामभाव अथवा प्रगाढ़ प्रेम है, वह मेरे मन जाने पर भी तुम्हें नहीं छोड़ सकता- यह मेरी निश्चित धारणा है। इस बात को अच्छी तरह समझ लो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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