हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टपश्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 15-26 का हिन्दी अनुवादतब उन थवइयों ने महाबाहु श्रीकृष्ण से 'बहुत अच्छा' कहकर विधिपूर्वक दुर्ग-कर्म (दुर्गनिर्माण-सम्बन्धी प्रारम्भिक कार्य नींव खोदना आदि) और संस्कार (भूमिशोधन कण्टक निवारण आदि) करके यथोचित रीति से विभिन्न दुर्गों और मन्दिरों का निर्माण किया तथा उनमें क्रमश: ब्रह्मा आदि देवताओं के लिये स्थान बनाये। उन्होंने जल, अग्रि, इन्द्र तथा सिल-ओखली- इन चार देवताओं के लिये चार द्वार बनाये (अथवा शुद्धाक्ष आदि चार देवताओं के लिये द्वारों का निर्माण किया)। उन कारीगरों ने शुद्धाक्ष, ऐन्द्र, भल्लाट और पुष्पदन्त की भी मूर्तियाँ बनायीं और उनके लिये उपयुक्त स्थान का निर्माण किया। जब महामनस्वी यादव उन भवनों के निर्माण कार्य में जुट गये, तब माधव श्रीकृष्ण इस चिन्ता में पड़े कि किस तरह इस पुरी का शीघ्र निर्माण हो जाय। दैववश उनके भीतर पुरी का शीघ्र निर्माण कराने वाली निर्मल बुद्धि का उदय हुआ, जो यादवों का प्रिय एवं अभ्युदय करने वाली थी। उन्होंने सोचा, ‘देवताओं के प्रधान शिल्पी प्रजापतिपुत्र विश्वकर्मा इस कार्य में समर्थ हैं। वे अपनी बुद्धि के अनुसार इस पुरी की स्थापना करेंगे।' मन-ही-मन यह बात सोचकर भगवान श्रीकृष्ण एकान्त स्थान में विश्वकर्मा के आगमन के लिये देवताओं की ओर उन्मुख हुए। इसी समय परमबुद्धिमान शिल्पाचार्य सुरश्रेष्ठ विश्वकर्मा श्रीकृष्ण के सामने आकर खड़े हो गये। विश्वकर्मा बोले- उत्तम व्रत को धारण करने वाले विष्णुदेव! मुझे इन्द्र ने आपके पास शीघ्र भेजा है। मैं सेवक आपकी सेवा में उपस्थित हूँ। आज्ञा दीजिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ? देव! प्रभो! मेरे लिये जैसे देवाधिदेव ब्रह्मा जी तथा अविनाशी भगवान शंकर माननीय हैं, उसी प्रकार आप भी मेरे लिये सम्माननीय हैं। मेरी धारणा के अनुसार आप तीनों में कोई अन्तर नहीं है। महाबाहो! आपकी वाणी तीनों लोकों का ज्ञान कराने वाली है (अथवा तीनों लोकों को आज्ञा देने में समर्थ है) आप मेरे प्रति उसी का प्रयोग कीजिये। मैं शिल्पशास्त्र का पारदर्शी आपके सामने खड़ा हूँ। आज्ञा दीजिये, कौन-सा कार्य करूँ। विश्वकर्मा का यह विनययुक्त वचन सुनकर कंसविध्वंसी यदुश्रेष्ठ भगवान श्रीकृष्ण उनसे यह अनुपम वचन बोले- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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