हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पञ्चपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 45-59 का हिन्दी अनुवाद
वज्रधारी इन्द्र ने शूरसेन के कुल में उत्पन्न हुए देवताओं के भी देवता, सबके आदि कारण शेषस्वरूप बलराम जी के लिए दिव्य वस्त्र और आभूषण भेजा है। मथुरा के सभी नागरिकों के लिए पृथक-पृथक दस-दस दीनार[1] सुवर्ण के भाग नियत किये गये हैं। सूत, मागध और बंदीजनों में से एक-एक को एक-एक हजार दीनार प्राप्त होंगे। मंगल गाने वाली बूढ़ी स्त्रियों तथा नर्तकियों को सौ-सौ दीनार दिये जायेंगे। विकद्रु आदि जो यादव राजा उग्रसेन के साथ रहते हैं, उनमें से प्रत्येक का भाग इन्द्र ने दस-दस हजार दीनार नियत किया है।' वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार मथुरावासियों की सेना के मुहाने पर राजा उग्रसेन का सम्मान करके भगवान मधुसूदन ने सारी मथुरा को महान आनन्द से परिपूर्ण करते हुए उसमें प्रवेश किया। जैसे स्वर्ग में देवता शोभा पाते हैं, उसी प्रकार मथुरा में भगवान श्रीकृष्ण और वहाँ के नागरिक दिव्य आभूषणों, दिव्य पुष्पों की मालाओं तथा दिव्य वस्त्र और चन्दनों से अलंकृत हो सब ओर प्रकाशित हो रहे थे। भेरी, पटह, शंख और दुन्दुभि आदि वाद्यों की ध्वनि के साथ हाथियों के चिंघाड़ने, घोड़ों के हींसने, शूरवीरों के सिंहनाद करने तथा रथ के पहियों की घरघराहट होने से जो सम्मिलित महान शब्द होता था, वह आकाश में मेघों की गर्जना के समान प्रतीत होता था। बन्दीजन भगवान की स्तुति करते थे और प्रजावर्ग के लोग उनके चरणों में सर झुकाते थे। उस समय धन का अनन्त दान करके भी श्रीहरि को कोई विस्मय या गर्व नहीं हुआ। एक तो स्वभाव से ही उनका ऊँचा भाव था। वे उससे पहले उसकी अपेक्षा भी अधिक धन का दान देख चुके थे और स्वाभाविक ही उन्हें अहंकार छू नहीं गया था; इसलिए उनको विस्मय या गर्व नहीं हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ एक हजार स्वर्णमुद्राओं का एक दीनार होता है। इसके अनुसार मथुरा के प्रत्येक नागरिक को दस-दस हजार स्वर्ण मुद्राएँ अर्पित की गयीं।
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