हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 51 श्लोक 13-25

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 13-25 का हिन्दी अनुवाद

नरेश्वर! मेरा यहाँ आगमन ही प्राय∶ आपके लिये हितकर नहीं है– ऐसा समझकर ही आपने मुझ अपात्र का आतिथ्य-सत्कार नहीं किया। राजन! मुझे छोड़कर आप इन सुपात्र राजाओं को अपनी कन्या दीजिये। मेरे आ जाने के दोष से आप अपनी कन्या का दान कैसे नहीं करेंगे कन्या के विवाह में विघ्न डालने वाला मनुष्य नरक की आग में पकाया जाता है– ऐसा मनु आदि धर्मज्ञ नरेशों ने कहा है। प्रजानाथ! इसलिये मैं रंगभूमि में नहीं आया हूँ, नरदेव! मुझे पहले ही ज्ञात हो गया था कि आपका घर आतिथ्यहीन है। राजन! नरेश्वर! मैंने विदर्भ नगर में विश्राम के लिये जो अपनी सेना को ठहरा दिया– इसके कारण राजेन्द्रों का राजा होकर भी मैं लज्जा से गड़ गया हूँ (क्योंकि यदि मैंने यहाँ विश्राम न किया होता तो मुझे आपके द्वारा सत्कृत न होने का अपमान नहीं सहना पड़ता)। इतने पर भी मैंने और गरुड़ ने पूरा-पूरा आतिथ्य सत्कार प्राप्त किया है; क्योंकि राजा कैशिक को अतिथि प्रिय है। हम दोनों यहाँ उसी तरह सुख से रहे हैं, जैसे पहले वैकुण्ठ धाम में रहा करते थे।

वैशम्पायन जी कहते हैं– जनमेजय! ऐसी ही बातें कहकर जिन्होंने वाग्वज्र का प्रहार किया था, उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण को, जो अग्नि के समान प्रज्वलित हो रहे थे, राजा भीष्मक ने अपनी मधुर वाणी रूप जल से सींचकर शान्त किया।

भीष्मक बोले– देवलोकेश्वेर! आप मुझ पर प्रसन्न हों, लोकशासक परमेश्वर। मेरी रक्षा कीजिये। मैं अज्ञानरुपी अन्धकार से घिरा हुआ हूँ, आप मुझे ज्ञानरुपी नेत्र प्रदान करें। मनुष्य योनि में जन्म लेकर मांसपिण्डी पर ही दृष्टि रखने के कारण अथवा केवल स्थूलदर्शी होने के कारण हम सम्यक ज्ञान से वंचित हैं (हमारी बुद्धि उलटी हो गयी है)। अत∶ अविचारपूर्वक कर्म करने के कारण हमारे कार्य सिद्ध नहीं हो पाते।

आप देवताओं के भी देवता हैं। आपकी शरण में आकर मेरी दृष्टि उत्तम हो जाय और मेरे सारे कर्म ठीक ढंग से सम्पन्न हों। जैसे प्रधान सेनापति अयोग्य सेना का भी नीतिपूर्वक संचालन कर उसे सफल बना देता है, उसी तरह विद्वान पुरुष असम्पन्न कर्म को भी यदि वह न्याययुक्त है तो फलदायक बना देते हैं। आपकी शरण में आ जाने के कारण अब मुझे किसी प्रकार का भय नहीं सता रहा है। मैंने जो कार्य सोचा है, उसे आप सुनने की कृपा करें। देवेश्वर! मैं स्वयंवर में आये हुए राजाओं को अपनी कन्या नहीं देना चाहता। आप मुझ पर कृपा करें, क्रोध न करें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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