हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 43 श्लोक 72-85

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: त्रिचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 72-85 का हिन्दी अनुवाद

उस समय आकाश में सब लोगों के ससक्ष सुस्पष्ट स्वर में दैवी वाणी सुनाई दी– दूसरों को मान देने वाले बलराम! जरासन्ध का वध तुम्हारे हाथों से होने वाला नहीं है, अत: खेद न करो। इसकी मृत्यु का विधान मेरे द्वारा बना दिया गया है, अत: तुम इस युद्ध से विरत हो जाओ। थोड़े ही समय में मगधराज को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा। वह आकाशवाणी सुनकर जरासन्ध का मन उदास हो गया। तदनन्तर बलराम ने उस पर पुन: प्रहार नहीं किया। वे दोनों वीर युद्ध से विरत हो गए। महाराज! इसके पहले ये वृष्णिवंशी योद्धा और वे राजा लोग दीर्घकाल तक एक–दूसरे पर प्रहार करते रहे। जब राजा जरासन्ध पराजित होकर पालयन करने लगा, तब उसकी सारी सेना खाली हो गई। उसके विशाल रथ पीछे की ओर लौट गए।

वे राजा व्याघ्र के सूंघे हुए मृगों के समान मन–ही–मन बहुत डरे हुए थे, अत: अपने हाथी, घोड़े और रथों को हांकते हुए रणभू्मि से भाग चले। जिनका घमंड चूर–चूर हो गया था, उन महारथी नरेशों द्वारा परित्यक्त हुए उस घोर युद्ध स्थल में अधिकतर मांसभक्षी जीव–जंतु ही रह गए थे। इससे वह बड़ा भयंकर प्रतीत होता था। जब मुख्य–मुख्य रथी भाग चले, तब महातेजस्वी चेदिराज दमघोष ने यादवों के साथ अपने संबंध को स्मरण करके श्रीकृष्ण का ही अनुसरण किया। निष्पाप जनमेजय! करूष और चेदिदेश की सेना से घिरे हुए चेदिराज श्रीकृष्ण के साथ संबंध बढ़ाने की इच्छा से उनसे इस प्रकार बोले- 'यादव नंदन! मैं तुम्हारी बुआ का पति हूँ और सेना सहित तुम्हारे पास आया हूँ। प्रभो! तुम मेरे परमप्रिय हो। मैंने इस मंदबुद्ध राजा जरासन्ध से कहा था कि अरे दुर्बुद्धे! तू इस विग्रह से श्रीकृष्ण के साथ युद्ध करने से विरत हो जा, किंतु इसने नहीं माना।

इसने मेरे इस कथन की निंदा की थी, अत: अब मैंने इसे त्याग दिया है। युद्ध में तुम्हारे द्वारा पराजित होकर यह जरासन्ध अपने साथियों सहित भागा जा रहा है। परंतु यह राजा वैर भाव छोड़ कर अपने नगर को नहीं लौट रहा है, अत: यह फिर तुम्हारे प्रति ही दूसरे पापपूर्ण कृत्य का प्रदर्शन करेगा। इसलिए अब तुम शीघ्र ही इस भूमि को त्याग दो। यह मुर्दे मनुष्यों से भरी हुई है और यहाँ सब ओर हिंसक प्राणी छा गए हैं। अब यह स्थान मानवेतर (राक्षस आदि) प्राणियों के सेवन करने योग्य है। श्रीकृष्ण! अब हम लोग सैनिकों और सेवकों सहित करवीरपुर में चलें। वहाँ शृगाल नाम से विख्यात राजा वासुदेव रहते हैं। उनसे हम मिलेंगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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