हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 32 श्लोक 13-26

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: द्वात्रिंश अध्याय: श्लोक 13-26 का हिन्दी अनुवाद

देवता धर्मपरायण मनुष्य की विशेष रूप से रक्षा करते हैं, क्योंकि लोक में अधिकतर पाप कर्म करने वाले ही सुलभ होते हैं। अत: मैंने जो इस कंस का वध किया है, इसे आप लोग ठीक समझें, क्योंकि ऐसा करके मैंने उसके पाप-कर्म का मूलोच्‍छेद कर डाला है, इसलिये इन समस्त शोकाकुल नारियों को आप लोग सान्वजो ना प्रदान करें और मथुरापुरी के नागरिकों एवं शिल्पियों तथा व्यवसायियों को भी समझा-बुझाकर धीरज बंधावें।' जब श्रीकृष्ण इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय राजा उग्रसेन अपना मुंह नीचे किये कुछ यादवों को साथ ले उस घर में प्रविष्ट हुए। वे मन-ही-मन अपने पुत्र कंस के अपराध से डरे हुए थे। उन्होंने उस यादव-सभा में कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण से आंसू भरी दीन, गद्गद तथा लड़खड़ाती हुई। वाणी में इस प्रकार कहा-

‘श्रीकृष्ण! तुमने मेरे पुत्र से उसके अपराध का बदला ले लिया, अपने उस शत्रु को क्रोधपूर्वक यमलोक पहुँचा दिया, धर्म के अनुसार कीर्ति प्राप्त कर ली और भूमण्डल में अपने नाम का डंका पीट दिया सत्पुरुषों के हृदय में अपनी महत्ता स्थापित कर दी और शत्रुओं को भयभीत कर दिया, यदुवंश की जड़ जमा दी और सुहृदों को अपने ऊपर गर्व करने का अवसर दिया सामन्ती राजाओं में तुम्हारा प्रताप प्रकाशित हो गया, मित्रगण तुम्हें अपनायेंगे और भूमण्डल के राजा तुम्हारा आश्रय लेंगे प्रकृतियां (प्रजा, मन्त्री आदि) तुम्हारा अनुसरण करेंगी, ब्राह्मण लोग तुम्हारी स्तुति करेंगे- तुम्हारे गुण गायेंगे और संधि-विग्रह के कार्यों में प्रमुख रूप से भाग लेने वाले मन्त्री तुम्हें प्रणाम करेंगे।

श्रीकृष्ण! हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिकों से भरी हुई कंस की यह अक्षय सेना ग्रहण करो श्रीकृष्ण! जो कुछ भी धन, धान्य, रत्न, और वस्त्र आदि कंस के अधिकार में थे, उन सबको तुम्हारे आदमी संभाल लें। स्त्रियां, सुवर्ण, वाहन तथा अन्य जो कुछ भी धन, रत्न आदि हैं, उन पर भी वे अधिकार कर लें। यदुवंशियों के शत्रुओं का संहार करने वाले यदुनन्दन श्रीकृष्ण! जब इस प्रकार अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति रूप योग सम्पन्न हो गया, विग्रह की समाप्ति हो गयी और इस पृथ्वी पर तुम्हारा पूर्णरूप से अधिकार हो गया, तब हम सभी यादवों की गति और अगति एक मात्र तुम्हीं हो। वीर! हम दीन जन तुम्हारे सामने जो कुछ कह रहे हैं- हमारी यह प्रार्थना स्वीकार करो। गोविन्द! यह पाप कर्म कंस तुम्हारे कोप से दग्ध हो गया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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