हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 27 श्लोक 39-56

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्‍तविंश अध्याय: श्लोक 39-56 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्‍ण ने मुसकराते हुए काम पीड़ित कुब्‍जा को वहीं छोड़ दिया और उससे छूटकर वे दोनों बन्‍धु राजभवन में प्रविष्‍ट हुए। व्रज में बड़े होकर गोपवेश से विभूषित हुए उन दाेनों वीरों ने जब उस राजभवन में प्रवेश किया, उस समय उनकी प्रत्‍येक चेष्टा गुप्‍तरूप से होती थी। उनके मुख का भाव ही ऐसा गूढ़ था कि उससे आन्‍तरिक चेष्‍टा का पता नहीं लगता था। हिमालय के वन में उत्‍पन्न हुए दो मदमत्त सिंहों के समान वे दोनों बालक वहाँ धनुषशाला में जा पहुँचे। उस समय उनके वहाँ पहुँचने की सम्‍भावना किसी को नहीं थी। वे वहाँ रखे हुए विशाल धनुष को, जो पुष्‍प माला से विभूषित था, देखना चाहते थे; अत: उन दोनों वीरों ने उस समय शास्त्रगार के संरक्षक से पूछा- 'राजा कंस के धनुष की रक्षा करने वाले अस्‍त्र-संरक्षक! तुम हम दोनों की बातें सुनो। सौम्‍य! जिसका यह उत्‍सव होने जा रहा है, वह धनुष कौन-सा है? यदि तुम्‍हारी इच्‍छा हो तो कंस के इस उत्‍सव का जो प्रधान निमित्‍त है, उस धनुष का हमें दर्शन कराओ।' उसने उन दोनों भाइयों को वह खम्‍भ- जैसा मोटा धनुष दिखा दिया। उस धनुष पर प्रत्‍यंचा चढ़ाना या उसे तोड़ना इन्‍द्र सहित सम्‍पूर्ण देवताओं के लिये भी असम्‍भव था।

पराक्रमी कमलनयन श्रीकृष्‍ण ने प्रसन्नचित्त से दोनों हाथों द्वारा उस धनुष को उठाकर तौला। दैत्‍यों द्वारा पूजित हुए उस धनुष को इच्‍छानुसार तौलकर बलवान श्रीकृष्‍ण ने कई बार उसको झुकाया और उसके ऊपर प्रत्‍यंचा चढ़ायी। श्रीकृष्‍ण के द्वारा बहुत झुका दिये जाने के कारण वह पुष्‍पहारों से विभूषित सर्पाकार धनुष बीच से टूटकर दो भागों में विभक्‍त हो गया। उस श्रेष्‍ठ धनुष को तोड़कर श्रीकृष्‍ण तथा वे नवयुवक संकर्षण शीघ्रतापूर्वक कदम बढ़ाते हुए बड़े वेग से उस भवन से बाहर निकल गये। उस धनुष के टूटने से जो धड़ाका हुआ, वह सहसा उठी हुई आंधी के समान गम्‍भीर घोष करने वाला था। उससे सारा अन्‍त:पुर कांप उठा और सम्‍पूर्ण दिशाओं में वह आवाज गूँज उठी। शस्‍त्रगार से निकलकर दोनों भाई व्रज से आये हुए गोपों के निकट चले गये। इधर आयुधों की रक्षा करने वाला वह सिपाही मन-ही-मन घबरा उठा और बड़े वेग से राज दरबार की ओर चल दिया।

राजा के निकट जाकर कौए की तरह चकित हो लम्‍बी सांस खींचता हुआ वह इस प्रकार बोला- 'महाराज! मैं जो बात बताना चाहता हूँ, उसे ध्‍यान देकर सुनिये। इस समय धनुषशाला में एक आश्‍चर्यजनक घटना घटित हुई है, जो सम्‍पूर्ण जगत के प्रलय की भाँति प्रतीत होती है। वहाँ दो मनुष्‍य आये थे, जिनकी तुलना किसी से भी नहीं हो सकती। उनके मस्‍तक के सभी बाल शिखा (चोटी) के समान बड़े-बड़े थे। एक ने नीला वस्‍त्र पहन रखा था और दूसरे ने पीला। एक के अंगों में पीला अंग राग था तो दूसरे के अंगों में श्‍वेत। वे दोनों इच्‍छानुसार वेष धारण करने में कुशल थे, सहसा अन्‍त:पुर में घुस आये और किसी को पता न चला। वे दोनों वीर देवकुमारों के समान प्रतीत होते थे। उनकी आकृति बड़ी सौम्‍य थी। उन्‍हें देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो बालरूपधारी अग्नि सहसा आकाश से आकर धनुषशाला में खड़े हो गये हों। उन दोनों के वस्‍त्र और पुष्‍पहार बड़े सुन्‍दर थे। मैंने उनको स्‍पष्‍ट रूप से देखा है। उनमें से एक की आंखें कमल के समान सुन्‍दर थीं, शरीर का वर्ण श्‍याम था। उसके वस्‍त्र और हार पीले रंग के थे। जिसे हाथ में लेना देवताओं के लिये भी कठिन है, उसी धनुषरत्न को उस श्‍याम सुन्‍दर वीर ने अनायास ही उठा लिया। उस बालक ने उस विशाल धनुष को लोहयन्‍त्र की भाँति बलात हाथ में लेकर वेगपूर्वक उस पर प्रत्‍यंचा चढ़ायी और खेल-खेल में ही उसे झुकाना आरम्‍भ किया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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