हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 118 श्लोक 76-98

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 76-98 का हिन्दी अनुवाद


तुम आकाश में विचरने वाली और इच्छानुसार रूप धारण करने वाली योगिनी हो, इस उपाय के ज्ञान में भी कुशल हो, अत: मेरे प्रियतम को शीघ्र ले लाओ। भीरु! सुन्दरि! मुझे प्रिय समागम का सुख कैसे मिले, इस पर भली-भाँति तर्क-वितर्क करके कोई ऐसा उपाय सोचो, जिससे सफल मनोरथ होकर लौटो। जो आपत्तिकाल में मित्र हो, उसी मित्र की विद्वान पुरुष प्रशंसा करते हैं। सुश्रोणि! मैं काम से पीड़ित हो रही हूँ, तुम मेरे प्राणों की रक्षा करने वाली बनो। शुभे! विशाललोचने! यदि तुम मेरे इन देवोपम पति को आज यहाँ नहीं ले आओगी तो मैं शीघ्र ही अपने प्राणों का परित्याग कर दूँगी। उषा की यह बात सुनकर चित्रलेखा बोली- 'कल्याणि! पवित्र मुस्‍कान वाली उषे! पहले मेरी बात सुनो! देवि! जैसे बाणासुर की नगरी सब ओर से सुरक्षित है, भीरु! उसी प्रकार द्वारकापुरी भी है। देवता भी उसका पराभव नहीं कर सकते। वह लोहे के किवाड़ों से ढकी हुई है।

वृष्णिवंशीकुमार तथा अन्य द्वारकावासी उस नगर की रक्षा करते हैं। विश्वकर्मा ने उस पुरी का निर्माण किया है। उसके प्रान्तभाग में समुद्र की जलराशि ही खाई के रूप में विद्यमान है। पद्मनाभ श्रीकृष्ण के आदेश से बड़े भयंकर पुरुष उसकी रक्षा करते हैं। पर्वत ही उसके परकोटे हैं। समुद्र ही खाई है। दुर्ग के मार्ग से ही उसमें प्रवेश होता है। धातुमण्डित पर्वतों के बने हुए सात परकोटों से वह पुरी घिरी हुई है। अपरिचित व्यक्ति द्वारकापुरी में कभी प्रवेश नहीं कर सकते, अत: अनिरुद्ध को लाने का हठ छोड़कर तुम अपनी, मेरी और विशेषत: अपने पिता की रक्षा करो।' उषा बोली- 'सखि! योगशक्ति के प्रभाव से तुम्हारा द्वारकापुरी में प्रवेश हो सकता है। अधिक प्रलाप करने से क्या लाभ? मेरी प्रतिज्ञा सुन लो। यदि मैं अनिरुद्ध का पूर्ण चन्द्रमा के समान कान्तिमान वह मनोहर मुख नहीं देखूँगी तो यमलोक को चली जाऊँगी। भामिनि! अच्छे दूत को पाकर कार्यों कि सिद्धि हो जाती है, अत: यदि तुम मुझे जीवित रखना चाहती हो तो मेरी दूती बनकर द्वारका को चली जाओ।

यदि तुम मरे सखित्व को जानती हो और प्रेमपूर्वक कही हुई मेरी बात पर विश्वास करती हो तो मेरे प्रियतम को शीघ्र यहाँ ले आओ। मैं तुम्हारी शरण में आयी हूँ। प्राणों के लिये संशय उपस्थित हो और कुल का भी संहार हो जाये, किंतु काम पीड़ित मदमत्त कामिनियाँ इन बातों की ओर नहीं देखती हैं। सभी कार्यों के लिये प्रयत्‍न करना उचित है, यह शास्त्र की आज्ञा है। विशाललोचने! तुम द्वारकापुरी में प्रवेश करने में समर्थ हो। भीरु! मैंने तुम्हारी बड़ी स्तुति की है। तुम मुझे मेरे प्रियतम का दर्शन करा दो। चित्रलेखा बोली- सखि! तुम्हारे अमृतोपम वचनों द्वारा मेरी सब प्रकार से स्तुति ही की गयी है। तुम्हारे इन प्रिय एवं मनोरम वचनों ने मुझे इस कार्य के लिये उद्योग करने को विवश कर दिया है।

भीरु! यह देखो, अब मैं शीघ्र ही द्वारकापुरी को जाती हूँ। आज तुम्हारे पति वृष्णिवंशावतंस महाबाहु अनिरुद्ध को मैं द्वारकापुरी में प्रवेश करके ले आऊँगी। यह वचन यथार्थ होने के साथ ही दानवों के लिये अमंगल कारक और भयावह था। इसे कहकर मन के समान वेगशालिनी चित्रलेखा तत्काल अन्तर्धान हो गयी। उषा अपनी सखियों के साथ अभीष्ट कार्य का चिन्तन करती हुई वहीं खड़ी रही, किंतु चित्रलेखा उस समय तृतीय मुहूर्त में बाणपुर से अदृश्य हुई थी। सखी का प्रिय करने की इच्छा लिये तपस्वी मुनियों का पूजन करती हुई चित्रलेखा एक ही क्षण में श्रीकृष्ण द्वारा सुरक्षित द्वारकापुरी में जा पहुँची। कैलाश शिखर के समान ऊँचे-ऊँचे महलों से सुशोभित रमणीय द्वारकापुरी को उसने आकाश में प्रकाशित होती हुई तारा के समान देखा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णु पर्व में उषाहरण के प्रसंग में चित्रलेखा का द्वारकागमन विषयक एक सौ अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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