हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 110 श्लोक 42-61

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: दशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 42-61 का हिन्दी अनुवाद

‘देवगन्धर्व! ऐसा न कहो, न कहो। युद्ध और कलह के प्रेमी द्विजश्रेष्ठ! मैं न तो धन्य हूँ और न आश्चर्यजनक जन्तुओं से सुशोभित ही। आप सत्यपरायण महर्षि का यह वचन मेरे प्रति बाधित हो रहा है। ब्रह्मन्! संसार में पूर्णत: आश्चर्यकारक और धन्य तो एक मात्र समुद्र ही है, जिसमें मुझ जैसी सैकड़ों विस्तृत नदियां जाकर मिलती हैं। गंगा जी का उक्त वचन सुनकर मैं महासागर के तट पर गया और बोला- महार्णव! तुम समस्त लोकों में आश्चर्यमय और धन्य हो, क्योंकि तुम जल की योनि और स्वामी हो। जल बहाने वाली जो ये लोकपावन और विश्ववन्दित नदियां पत्‍नी भाव से तुम्हारे समीप जाती हैं, यह सब उचित ही है। मेरे ऐसा कहने पर पवनप्रेरित समुद्र अपनी अगाध जलराशि का भेदन करके उठ खड़ा हुआ और मुझसे इस प्रकार बोला- देवगन्धर्व! आप ऐसा न कहें! न कहें! द्विजश्रेष्ठ! मैं ऐसा आश्चर्यरूप नहीं हूँ। मुने! धन्य तो यह वसुधा है, जिसके ऊपर मैं स्थित हूँ। संसार में पृथ्वी के सिवा उससे बढ़कर आश्चर्य की वस्तु दूसरी कौन है? समुद्र के कहने से मैं पृथ्वी पर खड़ा हुआ और कौतूहलयुक्त होकर जगत की आधार-स्वरूपा पृथ्वी से बोला- धरित्रि! तू समस्त देहधारियों की योनि है, अत: शोभने! तू निश्चय ही धन्य है। महती क्षमा से संयुक्त होने के कारण तू सम्पूर्ण भूतों में आश्चर्यरूप है।

अत: निश्चय ही तू समस्त प्राणियों को धारण करने वाली और मनुष्यों का उत्पत्ति-स्थान है। तुझसे ही क्षमाभाव प्रकट हुआ है। आकाशचारियों का कर्म भी तुझ से ही सिद्ध होता है। मेरे द्वारा कहे गये प्रशंसासूचक वचन से पृथ्वी उत्तेजित-सी हो उठी। उसने अपनी सहज धीरता छोड़ दी और प्रत्यक्ष होकर मुझसे कहा- युद्ध और कलह से प्रेम रखने वाले देवगन्धर्व! ऐसी बात न कहो! न कहो! न तो मैं धन्य हूँ और न आश्चर्यरूप ही हूँ। मुझमें जो धीरता दिखायी देती है, यह मेरी नहीं दूसरों की है। द्विजश्रेष्ठ! ये पर्वत धन्य हैं, जो मुझे धारण करते हैं। ये ही आश्चर्यरूप देखे जाते हैं तथा ये ही जगत की स्थिति के हेतु हैं। पृथ्वी के इस कथन से प्रभावित होकर मैं पर्वतों के यहाँ उपस्थित हुआ और बोला- भूधरों! तुम धन्य हो। तुममें बहुत-सी आश्चर्य की बातें दिखायी देती हैं। सुवर्ण, श्रेष्ठ रत्न और विशेषत: धातुओं के उत्पत्ति स्थान होने के कारण तुम सब लोग आकर कहलाते हो। इस भूतल पर तुम सब ही सदा बने रहते हो। मेरी यह बात सुनकर स्थावर पदार्थों में श्रेष्ठ पर्वत, जो वनों से सुशोभित होते हैं, मुझसे सान्त्वनायुक्त वचन बोले- ब्रह्मर्षे! न तो हम धन्य हैं और न हमारे पास आश्चर्यजनक वस्तुएं ही हैं। प्रजापति ब्रह्माजी धन्य हैं, देवताओं में भी वे ही सम्पूर्ण आश्चर्यों से युक्त हैं। तब मैंने सबके उत्पत्ति स्थान अविनाशी प्रजापति के पास जाकर उनमें पर्वतों के कहे हुए वचनों की पर्याप्त सार्थकता देखी। इसके बाद मैंने सम्पूर्ण लोकों की उत्पत्ति के स्थानभूत, चार मुख वाले पिता महादेव को नतमस्तक होकर प्रणाम किया और फिर स्तवन करने के लिये मैं उनके पास खड़ा हुआ। स्तुति के बाद अपनी बात समाप्त करने के लिये मैंने पद्मयोनि ब्रह्माजी को सुनाते हए कहा- भगवन! एक मात्र आप ही आश्चर्यमय हैं, आप ही सम्पूर्ण जगत के गुरु एवं धन्य हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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