हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पन्चाधिकशततम अध्याय: श्लोक 64-84 का हिन्दी अनुवाद(हाथी आदि पशुओें के कटे हुए) मस्तक उसमें तिमि नामक मत्स्य के समान सब ओर व्याप्त थे। वह शोणित की वेगयुक्त धारा बहा रही थी। अनंगस्वरूप प्रद्युम्न के द्वारा बहायी गयी वह रक्त नदी अत्यन्त दुस्तर, दुर्लक्ष्य, दुर्गम एवं भयंकर थी। तेजोहीन पुरुषों के लिये उसे पार करना अत्यन्त कठिन था। शस्त्ररुपी ग्राहों से युक्त वह घोर नदी यमराज के राज्य की वृद्धि कर ही थी। उस युद्ध में श्रीमान रुक्मणीकुमार प्रद्युम्न ने बहुत से धनुर्धरों को मथ डाला और शत्रुहन्ता पर अनेक बाणों की वर्षा की। तब पुन: क्रोध में भरे हुए शत्रुहन्ता ने एक उत्तम बाण छोड़ा, जो प्रद्युम्न की छाती पर जाकर लगा। उस बाण से घायल होकर बलवान प्रद्युम्न तनिक भी विचलित नहीं हुए, उन्होंने मरणासन्न शत्रुहन्ता के लिये एक शक्ति उठायी। रणभूमि में रुक्मणिकुमार ने वह अग्नि की ज्वाला से युक्त शक्ति चला दी। इन्द्र के वज्र की भाँति गड़गड़ाहट पैदा करती हुई वह शक्ति शत्रुहन्ता का हृदय विदीर्ण करके पृथ्वी पर गिर पड़ी। हृदय विदीर्ण हो जाने से उसके सारे अंग शिथिल हो गये, मर्मस्थानों और अस्थियों के बन्धन खुल गये, उस दशा में महाबली शत्रुहन्ता रक्त वमन करता हुआ धरती पर गिर पड़ा। शत्रुहन्ता को धराशायी हुआ देख प्रमर्दन युद्ध के लिये डट गया। उसने मुसल हाथ में ले लिया और यह बात कही- 'अरे! खड़ा रह! तुझे युद्ध बड़ा प्रिय है न? इन प्राकृत सैनिकों के मारने से तू क्या लाभ उठायेगा। दुर्बुद्धे! तू मेरे साथ युद्ध कर,फिर तो तू नहीं हो जाएगा। तू वृष्णिकुल में उत्पन्न हुआ है, तेरा पिता हम लोगों का शत्रु है, मैं उसके पुत्र को मार डालूंगा, फिर वह स्वयं ही मर जायगा। दुर्बुद्धे! उसके मरने से समस्त देवताओं का क्षय हो जायगा, इस प्रकार अपने शत्रुओं के मर जाने पर समस्त दैत्य और दानव आनन्द के भागी होंगे। मेरे अस्त्र से तेरा वध हो जाने पर तेरे ही रक्त से मैं शम्बरासुर के पुत्रों का तर्पण करूँगा। आज वह भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी तो तुझ-जैसे नौजवान बेटे को मारा गया और गतायु हुआ सुनकर निश्चय ही करुण विलाप करेगी। तेरे उस पिता चक्रधारी कृष्ण की आशा अब विष्फल हो जायगी। तुझे मारा गया जानकर वह मन्दबुद्धि मानव अपने प्राणों का परित्याग कर देगा।' ऐसा कहकर उसने तुरंत ही रुक्मिणीकुमार प्रद्युम्न पर परिघ से प्रहार किया। उससे ताड़ित हुए महान तेजस्वी और प्रतापी प्रद्युम्न ने अपनी दोनों भुजाओं से उसके रथ को ऊपर को उछाल दिया और पृथ्वी पर गिराकर चूर-चूर कर डाला। प्रमर्दन उस रथ से कूदकर पैदल ही युद्ध के लिये खड़ा हो गया और अपनी प्रसिद्ध गदा को हाथ में लेकर उसने सहसा रुक्मिणीकुमार पर आक्रमण किया, परंतु प्रद्युम्न ने उसकी फेंकी हुई उस गदा से ही प्रमर्दन को मार गिराया। दैत्य प्रमर्दन के मारे जाने पर समस्त असुर सैनिक भाग खडे़ हुए। सिंह के भय से भागे हुए हाथियों के समान वे प्रद्युम्न के सामने ठहर न सके। जैसे शिकारी कुत्ते को देखकर करोड़ों का समूह पलायन करने लगता है, उसी प्रकार प्रद्युम्न के भय से पीड़ित हुई दैत्यसेना विषादग्रस्त होकर भागने लगी। उन सब सैनिकों के वस्त्र खून से रंग गये थे, केश खुले हुए थे। वे शोभाहीन हो गये थे। इस अवस्था में वे दैत्यसेना रजस्वला युवती की भाँति कहीं छिप जाने का प्रयत्न करने लगी। युवती के समान वेष धारण करने वाली दैत्यसेना कामदेव (प्रद्युम्न) के बाणों से घायल हो सैनिकों की और चली। उस समय वह भय आदि से पीड़ित हो रही थी। समररूपी सूरत को तो देखने में भी असमर्थ थी, केवल उच्छ्वास लेती हुई अपने घर को जाना चाहने लगी, वहाँ ठहरना नहीं। इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णु पर्व में शम्बरासुर की सेना का पलायन विषयक एक सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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