हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: द्वयधिकशततम अध्याय: श्लोक 20-44 का हिन्दी अनुवादइन पुरुषोत्तम ने वैणुदारि के लिये घोड़े, रथ और हाथियों सहित सारी पृथ्वी को, जो अस्त-व्यस्त हो गयी थी, यत्नपूर्वक जीत लिया। इन भगवान माधव ने पूर्व शरीर में वामन रूप होकर तपस्या का बल, वीर्य और ओज पाकर राजा बलि से त्रिलोकी का राज्य छीन लिया था। वज्र, अशनि, गदा और खड्ग के प्रहार से त्रास देते हुए दानव प्राग्ज्योतिषपुर में प्रयत्न करने पर भी इन्हें मार न सके। महाबली, महापराक्रमी तथा अत्यन्त वैभवशाली बलिपुत्र बाणासुर को भी श्रीकृष्ण ने पराजित कर दिया था। इन महाबली महाबाहु जनार्दन ने कंस के मन्त्री पीठ, पैठिक और असिलोमा को भी मौत के घाट उतार दिया। महायशस्वी पुरुषसिंह श्रीकृष्ण ने मानव रूपधारी जृम्भ, अहिरावण और विरूप नामक दैत्य को काल के गाल में भेज दिया। इसी तरह कमलनयन केशव ने यमुना जी के जल में रहने वाले महाबली नागराज कालिय को जीतकर समुद्र में भेज दिया। इन्हीं पुरुषसिंह श्रीहरि वैवस्वत यम को जीतकर सान्दीपनि के मरे हुए पुत्र को पुन: जीवनदान दिया था। नरेश्वर! इस प्रकार यह महाबाहु श्रीकृष्ण उन दुरात्माओं को दण्ड देने वाले हैं, जो देवताओं और ब्राह्मणों से सदा द्वेष रखते हैं। इन्होंने वज्रपाणि इन्द्र की प्रसन्नता के लिये भूमिपुत्र नरकासुर को मारकर देवमाता अदिति को उनके दोनों मणिमय कुण्डल लाकर दे दिये। इस प्रकार सम्पूर्ण लोकों के स्रष्टा, सर्वव्यापी, महायशस्वी भगवान श्रीकृष्ण सदा ही दुराचारी दैत्यों को भय और धर्मात्मा देवताओं को अभय प्रदान करते हैं। ये मनुष्यों में धर्म की स्थापना करके पर्याप्त दक्षिणा वाले यज्ञों का अनुष्ठान करते हुए देवताओं के असंख्य कार्य सिद्ध करने के अनन्तर अपने परम धाम को पधारेंगे। महायशस्वी श्रीकृष्ण भोग-वैभव से सम्पन्न रमणीय तथा ऋषियों के लिये कमनीय द्वारकापुरी को अपने अधीन करके अन्ततोगत्वा इसे समुद्र डुबों देंगे। जो बहुसंख्यक रत्नों से व्याप्त तथा सैकड़ों चैत्यों और यूपों से चिह्नित हैं, वन-उपवन सहित उस द्वारकापुरी को वरुणालय में निमग्न कर देंगे। शांर्गधन्वा श्रीकृष्ण के मत को जानने वाला समुद्र इन भगवान वासुदेव के द्वारा छोड़ी हुई सूर्यलोक-तुल्य तेजस्विनी द्वारका को अपने जल में विलीन कर लेगा। देवताओं, असुरों और मनुष्यों में इन भगवान मधुसूदन के सिवा दूसरा कोई ऐसा न तो हुआ है और न कभी होगा ही, जो इनके द्वारा छोड़ी गयी इस द्वारका पुरी में निवास कर सकें। इस प्रकार दशार्हवंशी यादवों के लिये उत्तम विधि का विधान करके ये सर्वव्यापी नारायण देव स्वयं ही चन्द्रमा और सूर्य रूप से प्रकाशित होंगे। ये अप्रेमय, अचिन्तय, इच्छानुसार विचरने वाले और सबको वश में रखने वाले हैं। जैसे बालक खिलौनों से प्रसन्न होता है, उसी प्रकार ये समस्त प्राणियों के साथ क्रीड़ा करते हुए आनन्द मग्न होते हैं। इन महाबाहु मधुसूदन को सीमित प्रमाणों द्वारा मापा नहीं जा सकता। यह पर या अपर रूप जगत इन विश्व रूप परमेश्वर से भिन्न नहीं है। ये ही सैकड़ों और लाखों बार सुने गये हैं। किसी ने पहले कभी इनके कर्मों का अन्त नहीं देखा है। इस तरह बालकों के बीच में रहकर संकर्षण सहित कमलनयन श्रीकृष्ण ने ये पूर्वोक्त कर्म किये थे। पूर्वकल्प के महायोगी, महा बुद्धिमान और सब कुछ प्रत्यक्ष देखने वाले व्यास ने अपनी तपोबल से सम्पन्न दृष्टि द्वारा देखकर यह सब कुछ बताया था। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार देवराज इन्द्र के आदेश से भगवान गोविन्द की स्तुति करके नारद मुनि समस्त यादवों से पूजित हो स्वर्ग लोक को चले गये। तदनन्तर कमलनयन मधुसूदन भगवान गोविन्द ने समस्त अन्धक और वृष्णि वंश के लोगों को विधिपूर्वक वह सारा धन यथोचित रूप से बांट दिया। उस धन को पाकर महामनस्वी यादव प्रचुर दक्षिणा वाले यज्ञों का विधिपूर्वक अनुष्ठान करते हुए द्वारका पुरी में निवास करने लगे । इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णु पर्व में नारद जी का वाक्य विषयक एक सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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